शनिवार, 19 जनवरी 2008

और फिर

इस डर से
नहीं खोली आखें ,
कि सपने
टकरा ना जाएँ

और फिर
नींद में
जागता रह
रात भर॥

इस शर्म से
खोले नहीं लैब
इक इजहारे मोहब्बत
कर ना बैठूं

और फिर
उसके पास
रह कर भी
उससे दूर
भागता रहा
उम्र भर

इस सोच में
उलझा रहा मन
कि क्यों हमेशा
कुछ अच्छा
अपने लिए सोच नहीं पाता

और फिर
नित नए
शब्दों को
साधता रह
पर्त डर पर्त

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